Video

Advertisement


जो गुरुत्व को ग्रहण करता है, वही सुपात्र है
bhopal, accepts gravity, worthy

(प्रवीण कक्कड़)

- गुरु पूर्णिमा का पर्व हमें गुरु के गुरुत्व का स्मरण दिलाता है

 

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु र्गुरुर्देवो महेश्वरः |

गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ||

 

बात केवल गुरु के ब्रह्मा, विष्णु, महेश अथवा परम ब्रह्म होने तक नहीं है बल्कि बात गुरु के गुरुत्व की भी है। गुरु शब्द दो अक्षरों "गु" और "रु" से बना है जहाँ गु का अर्थ है 'अन्धकार और रु का अर्थ है' प्रकाश। जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए वही गुरु है। इसलिए गुरु का पर्व भी गुरु पूर्णिमा के दिन ही आता है। पूर्णिमा यानी प्रकाश से सराबोर रात्रि। जिस रात्रि में चंद्रमा का प्रकाश अपने चरम पर हो वही पूर्णिमा है और जिसके जीवन में गुरु का प्रकाश अपने चरम पर हो वही सच्चा साधक है। गुरु का सच्चा साधक किसी पूर्णिमा के समान ही दमकता है। 

लेकिन गुरु में गुरुत्व होना भी जरूरी है। गुरुत्व दो तरह का होता है पहला जो अपनी तरफ खींचता है जैसे गुरुत्वाकर्षण। और दूसरा जो सत्य के मार्ग की तरफ प्रेरित करता है जैसे गुरु का आकर्षण। ज्ञान जीवन में बहुत आवश्यक है और ज्ञान प्राप्त करने के लिए आपको गुरु की शरण में जाना ही होगा। लेकिन ज्ञान कैसा?

इस प्रश्न का उत्तर बहुत गहरा है। कुछ लोग शिक्षक को गुरु कहते हैं। लेकिन शिक्षक गुरु नहीं हो सकता। वह किताबी ज्ञान देता है। और इसके बदले में उसे मानदेय मिलता है। किंतु गुरु किसी मानदेय की अपेक्षा के बगैर अपने अनुयाई के जीवन को संवार देता है। इसलिए गुरु को कुछ दिया नहीं जा सकता। उसके मार्ग पर चलकर उसकी शिक्षाओं का अनुसरण करके हम गुरु को गुरु दक्षिणा दे सकते हैं। क्योंकि गुरु जो देता है वह समाज के लिए होता है, राष्ट्र के लिए होता है, विश्व के लिए होता है। व्यक्ति विशेष तो उससे प्रेरणा लेता है।

 

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय। 

बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।

 

कबीर ने इस दोहे में गुरु के गुरुत्व का चित्र खींचा है, और कहा है कि परमपिता परमेश्वर से भी बढ़कर गुरु की शक्ति है, क्योंकि गोविंद भी गुरु से ही प्रेरणा प्राप्त हैं। यह गुरु की विशालता को दर्शाता है। संत कबीरजी कहते हैं, 'जिसके जीवन में सद्गुरु नहीं हैं वह अभागा है।' कबीर आगे कहते हैं तीरथ जाने से एक फल मिलता है, संत के मिलने से चार फल मिलते हैं, लेकिन गुरु के मिलने से अनंत फल मिलते हैं। यानी गुरु का सानिध्य अनंत फलदायक है।

 

तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार।

सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार।

 

तुलसीदास ने भी कहा है 

गुरु बिनु भवनिधि तरई ना कोई

जो बिरंचि संकर सम होई।

 

भले ही कोई विष्णु या शंकर के समान हो लेकिन गुरु के बिना नैया पार नहीं लगती। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि गुरु की महिमा अपरंपार है। लेकिन गुरु और अनुयाई के इस रिश्ते में पात्र - कुपात्र का बहुत महत्व है। गुरु का ज्ञान तो जल है, जैसे जल जिस पात्र में जाता है उसी आकृति का हो जाता है वैसे ही गुरु का ज्ञान उसके अनुयाई या शिष्य में उसके आचरण और स्वभाव के अनुरूप ही परिवर्तन लाता है। यही कारण है कि शुक्राचार्य  और पुलस्त्य ऋषि जैसे गुरु भी रावण के स्वभाव को नहीं बदल सके। विद्वान होकर भी वह अत्याचारी रहा। इसलिए गुरु के गुरुत्व को ग्रहण करना है तो सुपात्र बनें कुपात्र नहीं। इस गुरु पूर्णिमा यही संकल्प लेना है कि हमें गुरु के अनुरूप बनना है। उसकी शिक्षाओं को सही दिशा में ग्रहण करना है। श्री गुरुवे नमः।

Kolar News 1 July 2023

Comments

Be First To Comment....

Page Views

  • Last day : 8796
  • Last 7 days : 47106
  • Last 30 days : 63782
x
This website is using cookies. More info. Accept
All Rights Reserved ©2024 Kolar News.