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बात अब वादों पर अमल की है, जिसे लेकर अब तक किसी भी राजनीतिक पार्टी का परफार्मेंस सौ फीसदी नहीं रहा। दोनों पार्टियां खुद को पूरे नंबर देती है, लेकिन जनता के हाथ खाली हैं।शहरी सरकार के चुनाव के लिए मध्यप्रदेश भाजपा ने शुक्रवार को संकल्प पत्र के नाम से अपना घोषणा-पत्र जारी कर दिया। विकास के संकल्प के साथ इसमें 50 हजार करोड़ शहरी विकास पर खर्च करने, अस्थाई पट्टे देने, अवैध कॉलोनी वैध करने, सस्ती बस सेवा, फ्री वाई-फाई लाइब्रेरी सहित अनेक लुभावने वादे हैं, लेकिन बात इससे आगे की है। बात वादों पर अमल की है, जिसे लेकर अब तक किसी भी राजनीतिक पार्टी का परफार्मेंस सौ फीसदी नहीं रहा। वहीं कांग्रेस ने पहले ही निगम स्तर के घोषणा-पत्र जारी कर दिए हैं। इसमें आधा बिजली बिल और आधा प्रॉपर्टी टैक्स माफ करने जैसे वादे हैं, लेकिन यदि बात भाजपा-कांग्रेस में तुलना की करें, तो मामला पंद्रह साल वर्सेस पंद्रह महीने पर आ टिकता है। इसे लेकर दोनों पार्टियों के अपने-अपने दावे हैं। दोनों पार्टियां खुद को पूरे नंबर देती है, लेकिन जनता के हाथ खाली हैं। जनता के हिस्से पहले भी सिर्फ समस्याएं थी और अब भी सिर्फ समस्याएं ही हैं। पंद्रह साल की भाजपाई सत्ता हो या फिर पंद्रह महीने का कांग्रेसी कल्चर भोपाल से लेकर दूर कस्बों तक मानसून की शुरूआती फुहारों से सडक़ों की खुलती पोल हकीकत बयां कर रही है। अब भाजपा के कई नेता तो यही दुआ करेंगे कि अभी बारिश न हो, क्योंकि जितनी बारिश हुई उतनी समस्याएं बढ़ेंगी। जितनी समस्याएं बढ़ेंगी, उतना ही विकास चुभन देगा। अब ये चुभन वोट में उतरी, तो भाजपा को दिक्कत हो सकती है। अभी भाजपा के पास सभी 16 नगर निगमों के महापौर पद हैं, लेकिन आगे क्या होगा ये तय नहीं है। मैदान में टक्कर तगड़ी है, उस पर बारिश की बेरहमी आ गई तो भाजपा की राह और कांटों भरी हो जाएगी। इसलिए फिलहाल तो वोटिंग तक बारिश की बेरुखी भाजपा के लिए अच्छी और प्रदेश के लिए बुरी है। वैसे, जनता का भला तो बारिश की करेगी। इसी बहाने शायद राजनीतिक दलों को दर्द हो और स्थाई इंतजाम की ओर कोई कदम बढ़ा सके। वरना तो, जैसे मुख्य चुनाव के समय के वादे हो या फिर उपचुनाव के समय के वादे जनता तो इंतजार में ही समय गुजार देती है। भाजपा ने 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव के समय विधानसभा स्तर पर खूब वादे किए, थे लेकिन उन्हें अब पार्टी याद भी नहीं करना चाहती। वही मुख्य चुनाव यानी 2018 के विधानसभा के वादों का बोझ तो सत्ता परिवर्तन की भेंट चढ़ गया। कांग्रेस अब सत्ता में है नहीं, इसलिए उस समय के वादों से मुक्त। और, भाजपा ने अपने वादों के बल सत्ता में आई नहीं, इसलिए वह कांग्रेस के वादों को मानने के लिए बाध्य नहीं है। बस, ऐसे में वादों से दूर दावों की राह ही बची है। दावे विकास के, दावे अपनी अच्छाई और दूसरे के भ्रष्टाचार के। दोनों दल इसी पर चल रहे हैं। इसलिए फैसला जनता को करना है कि इन वादों और दावों का अब चुनाव में कोई अर्थ भी बचा है या नहीं। और, यदि बचा है तो वह कितना असरदार है?
विशेष टिप्पणी : जितेन्द्र चौरसिया
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