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नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट की 3 जजों की बेंच अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा तय करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने 4:3 के बहुमत से 1967 के अजीज बाशा मामले के फैसले को खारिज कर दिया, जिसके आधार पर एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इनकार किया गया था। संविधान बेंच ने 1 फरवरी को फैसला सुरक्षित रख लिया था।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच ने 1967 में अजीज बाशा के फैसले में कहा था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान का दावा नहीं कर सकती है, क्योंकि ये एक कानून के तहत अस्तित्व में आया है। आज सुप्रीम कोर्ट ने 4:3 के बहुमत से 1967 के अजीज बाशा मामले के फैसले को खारिज कर दिया, जिसके आधार पर एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इनकार किया गया था। बहुमत के फैसले में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा हैं। इस फैसले से असहमति दर्ज कराने वालों में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा हैं।
आज बहुमत के फैसले में चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि हमारे सामने सवाल था कि क्या अनुच्छेद 30ए के तहत किसी संस्था को अल्पसंख्यक माने जाने के मानदंड क्या हैं। चीफ जस्टिस ने कहा कि इस मामले में केंद्र का कहना है कि इस बात पर विवाद नहीं किया जा सकता कि अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव न किए जाने की गारंटी देता है। हालांकि, यहां सवाल यह है कि क्या इसमें गैर-भेदभाव के अधिकार के साथ-साथ कोई विशेष अधिकार भी है। चीफ जस्टिस ने कहा कि किसी भी नागरिक द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थान को अनुच्छेद 19(6) के तहत विनियमित किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार निरपेक्ष नहीं है। अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान के विनियमन की अनुमति अनुच्छेद 19(6) के तहत दी गई है, बशर्ते कि यह संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र का उल्लंघन न करे।
चीफ जस्टिस ने कहा कि कोई भी धार्मिक समुदाय एक संस्था स्थापित तो कर सकता है लेकिन उसका प्रशासन नहीं संभाल सकता। उन्होंने कहा कि संविधान के पहले के और उसके बाद के जो इरादे हों, उनके बीच अंतर अनुच्छेद 30(1) को कमजोर करने के लिए नहीं किया जा सकता है।
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